Freedom fighter of Jharkhand: भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में झारखंड के क्रांतिकारियों का योगदान

1. प्रस्तावना / परिचय

भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक दीर्घकालीन और बहुआयामी संघर्ष था, जिसमें विभिन्न वर्गों, समुदायों और क्षेत्रों ने अपनी-अपनी भूमिका निभाई। इस महान संघर्ष में झारखंड क्षेत्र का योगदान अद्वितीय और प्रेरणादायक रहा है। झारखंड, जो प्राकृतिक संसाधनों, घने जंगलों, पर्वतीय क्षेत्रों और समृद्ध जनजातीय संस्कृति के लिए जाना जाता है, ब्रिटिश शासन के समय बिहार, बंगाल और उड़ीसा का हिस्सा था। यहाँ की आदिवासी और कृषक जनसंख्या ने औपनिवेशिक शोषण, जबरन कर वसूली, भूमि अधिग्रहण, जंगलों पर प्रतिबंध और सांस्कृतिक दमन के विरुद्ध सशक्त आंदोलन किए।

झारखंड के क्रांतिकारी न केवल स्वतंत्रता संग्राम के पहले सशस्त्र विद्रोहियों में शामिल रहे, बल्कि उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ संगठित, सशस्त्र और वैचारिक प्रतिरोध खड़ा किया। तिलका मांझी से लेकर बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू, और जतरा भगत जैसे कई योद्धाओं ने इस क्षेत्र में स्वतंत्रता का स्वर गूंजाया। यह क्षेत्र भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की वैविध्यपूर्ण परंपराओं का प्रतीक है, जहाँ बलिदान, साहस, आत्मसम्मान और सामूहिक चेतना की मिसाल देखने को मिलती है।

2. विषय का महत्व

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में झारखंड का उल्लेख अक्सर सीमित रूप से किया गया है। यह विषय इसलिए अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि:

  • यह आदिवासी समाज की राजनीतिक चेतना और संगठन क्षमता को उजागर करता है।
  • यह जनजातीय क्षेत्रों में स्वतंत्रता आंदोलन की गहराई और विविधता को समझने का माध्यम है।
  • यह उन क्रांतिकारियों को सम्मान देने का प्रयास है जिन्हें मुख्यधारा के इतिहास में उचित स्थान नहीं मिला।
  • यह सामाजिक न्याय, सांस्कृतिक अधिकारों और भूमि पर स्वामित्व की लड़ाई को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ता है।
  • झारखंड के क्रांतिकारियों की संघर्षगाथा भारतीय इतिहास को अधिक समग्र और समावेशी दृष्टिकोण प्रदान करती है।

3. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि / इतिहास

झारखंड का इतिहास हजारों वर्षों पुराना है, जो प्राचीन जनजातीय सभ्यताओं, कृषि संस्कृति और आत्मनिर्भर सामाजिक संरचनाओं से समृद्ध रहा है। मुगल और ब्रिटिश शासन से पूर्व यह क्षेत्र स्वतंत्र जनजातीय शासन प्रणाली के अंतर्गत था, जहाँ परंपरागत पंचायतें, धार्मिक रीति-रिवाज और सामूहिक जीवन की परंपरा प्रचलित थी।

ब्रिटिश शासन के आरंभिक वर्षों से ही झारखंड क्षेत्र के लोगों को जबरदस्त आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक शोषण का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों ने न केवल भूमि व्यवस्था को बदला, बल्कि जंगलों और जल संसाधनों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। इससे आदिवासी समाज की आजीविका, संस्कृति और जीवनशैली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा।

18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 19वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इस क्षेत्र में विद्रोहों की एक श्रृंखला शुरू हुई। 1770 के दशक में चुआड़ विद्रोह, 1807 में तिलका मांझी का विद्रोह, 1831-32 में कोल विद्रोह, 1855-56 में संथाल विद्रोह और 1895-1900 के बीच बिरसा मुंडा का उलगुलान आंदोलन इस क्षेत्र के स्वतंत्रता संघर्ष की प्रमुख कड़ियाँ हैं। ये आंदोलन जनसंघर्ष, नेतृत्व, संगठन और बलिदान के अद्वितीय उदाहरण हैं।

4. वर्तमान स्थिति / वर्तमान परिदृश्य

वर्तमान में झारखंड एक स्वतंत्र राज्य के रूप में 15 नवंबर 2000 को बिहार से अलग होकर अस्तित्व में आया। यह दिन बिरसा मुंडा की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है। झारखंड सरकार और कुछ सामाजिक संगठनों द्वारा स्वतंत्रता सेनानियों की स्मृति को बनाए रखने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं:

  • राज्य में कुछ स्मारक, संग्रहालय और सार्वजनिक स्थान स्वतंत्रता सेनानियों के नाम पर स्थापित किए गए हैं।
  • स्कूली पाठ्यक्रमों में स्थानीय क्रांतिकारियों की जीवनी और योगदान को शामिल किया जा रहा है।
  • कुछ विश्वविद्यालयों में अनुसंधान कार्य और सेमिनार आयोजित होते हैं।
  • हालांकि, आज भी झारखंड के कई वीरों का इतिहास आम जनमानस से दूर है।

5. प्रमुख कारण / कारण और प्रभाव

झारखंड में हुए आंदोलनों के पीछे निम्नलिखित कारण प्रमुख रहे:

(क) सामाजिक कारण:

  • आदिवासी संस्कृति और धार्मिक परंपराओं पर विदेशी हस्तक्षेप।
  • धर्मांतरण की नीति और मिशनरियों की भूमिका।

(ख) आर्थिक कारण:

  • जबरन लगान वसूली और भूमि से बेदखली।
  • जंगलों पर प्रतिबंध और वन अधिकारों का हनन।
  • शोषणकारी जमींदारी और महाजन व्यवस्था।

(ग) राजनीतिक कारण:

  • जनजातीय समाज की पारंपरिक शासन प्रणाली को समाप्त करना।
  • स्थानीय नेतृत्व को कुचलना और सत्ता के केंद्रीकरण का प्रयास।

प्रभाव:

  • आदिवासी समाज में राजनीतिक चेतना का उदय।
  • संगठित प्रतिरोध की शुरुआत।
  • राष्ट्रीय आंदोलन के साथ स्थानीय आंदोलनों का समन्वय।

6. महत्वपूर्ण घटनाएँ / विकास

(I) चुआड़ विद्रोह (1769-1805):

झारखंड के आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1769 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1805 तक चला। स्थानीय आदिवासी लोगों को उत्पाती या लुटेरा के अर्थ में सामूहिक रूप से ब्रिटिशों द्वारा चुआड़ कह कर बुलाया गया। हाल के कुछ आंदोलनों में इसे आपत्तिजनक मानते हुए इस घटना को चुआड़ विद्रोह के बजाय जंगल महाल स्वतंत्रता आन्दोलन के नाम से बुलाये जाने का प्रस्ताव भी किया गया है। चुआड़ लोग संपादित करें चुआड़ अथवा चुहाड़ का शाब्दिक अर्थ लुटेरा अथवा उत्पाती होता है। जब 1765 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा तत्कालीन बंगाल के छोटानागपुर के जंगलमहल जिला में सर्वप्रथम मालगुजारी वसूलना शुरू किया गया, तब अंग्रेजों के इस षडयंत्रकारी तरीके से जल, जंगल, जमीन हड़पने की गतिविधियों का सन् 1769 ई. में कुड़मी समाज के लोगों द्वारा रघुनाथ महतो के नेतृत्व में सबसे पहला विरोध किया गया और ब्रिटिश शाशकों के खिलाफ क्रांति का बिगुल फूंका गया। जब अंग्रेजों ने पूछा, ये लोग कौन हैं, तो उनके पिट्ठू जमींदारों ने घृणा और अवमानना की दृष्टि से उन्हें ‘चुआड़’ (बंगाली में एक गाली) कहकर संबोधित किया, तत्पश्चात उस विद्रोह का नाम ‘कुड़मी विद्रोह’ के स्थान पर ‘चुआड़ विद्रोह’ पड़ा। झारखंड के आदिवासियों ने रघुनाथ महतो के नेतृत्व में ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ जंगल, जमीन के बचाव तथा नाना प्रकार के शोषण से मुक्ति के लिए 1769 में जो आन्दोलन आरम्भ किया उसे चुआड़ विद्रोह कहते हैं। यह आन्दोलन 1805 तक चला।

स्थानीय आदिवासी लोगों को उत्पाती या लुटेरा के अर्थ में सामूहिक रूप से ब्रिटिशों द्वारा चुआड़ कह कर बुलाया गया। हाल के कुछ आंदोलनों में इसे आपत्तिजनक मानते हुए इस घटना को चुआड़ विद्रोह के बजाय जंगल महाल स्वतंत्रता आन्दोलन के नाम से बुलाये जाने का प्रस्ताव भी किया गया है।जब बाउड़ी जनगोष्ठी को चुआड़ बिद्रोह शब्द से कोई आपत्ति नही है,जिसे आज भी चुआड़ कहकर पुकारा जाता है।बाउड़ी जनगोष्ठी के लोगों ने ही चुआड़ बिद्रोह किया था।

(ii) तिलका मांझी विद्रोह (1784-85)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई शुरू होने से बहुत पहले, भारत के आदिवासी समुदायों ने उपनिवेशवादियों के खिलाफ़ अपनी जान दे दी थी। अंग्रेजों के खिलाफ़ आदिवासी विद्रोह का एक ऐसा ही उदाहरण 1785 में तिलका मांझी का विद्रोह था।

अपने लोगों और भूमि की रक्षा के लिए दृढ़ संकल्पित तिलका ने आदिवासियों को धनुष और तीर चलाने में प्रशिक्षित सेना में संगठित किया। कई वर्षों तक वे यूरोपीय लोगों और उनकी सेना के साथ युद्ध करते रहे। 1770 में संथाल क्षेत्र में भयंकर अकाल पड़ा। लोग भूख से मर रहे थे। तिलका ने कंपनी का खजाना लूट लिया और उसे गरीबों और ज़रूरतमंदों में बांट दिया।

तिलका के इस नेक काम से प्रेरित होकर कई अन्य आदिवासी भी विद्रोह में शामिल हो गए। इसके साथ ही उनका “संथाल हूल” (संथालों का विद्रोह) शुरू हुआ। उन्होंने अंग्रेजों और उनके चाटुकार सहयोगियों पर लगातार हमला किया। 1771 से 1784 तक तिलका ने कभी आत्मसमर्पण नहीं किया।

वर्ष 1784 को अंग्रेजों के खिलाफ पहला सशस्त्र विद्रोह माना जाता है और यह संथालों के ऐतिहासिक रूप से दर्ज होने की शुरुआत थी। यह 1770 में अकाल और कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के आदेशों के कारण हुआ था, जिसके परिणामस्वरूप स्थानीय ज़मींदारों और संथाल ग्रामीणों के बीच बातचीत करने का न्यूनतम मौका था। तिलका माझी ने ईस्ट इंडिया कंपनी के प्रशासक ऑगस्टस क्लीवलैंड पर हमला किया और उसे घातक रूप से घायल कर दिया। अंग्रेजों ने तिलापुर के जंगल को घेर लिया, जहाँ से वह काम करता था, लेकिन उसने और उसके आदमियों ने कई हफ़्तों तक उन्हें रोके रखा। जब वह आखिरकार 1784 में पकड़ा गया, तो उसे एक घोड़े की पूंछ से बांध दिया गया और भागलपुर, बिहार, भारत में कलेक्टर के निवास तक घसीटा गया। वहाँ, उसके क्षत-विक्षत शरीर को एक बरगद के पेड़ से लटका दिया गया।

भारतीय स्वतंत्रता के बाद, जिस स्थान पर उन्हें फांसी दी गई थी, वहां उनकी एक प्रतिमा स्थापित की गई, जो एसपी भागलपुर के निवास के पास है और उनके नाम पर इसका नाम रखा गया है। साथ ही, भागलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर उनके नाम पर रखा गया – तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय। झारखंड के दुमका में एक और प्रतिमा स्थापित की गई।

(iii) कोल विद्रोह (1831-32)

कोल विद्रोह झारखंड के कोल जनजाति द्वारा अंग्रेजी सरकार के अत्याचार के खिलाफ 1831 ईसवी में किया गया एक विद्रोह है, जो 1833 तक चला। यह भारत में अंग्रेजों के खिलाफ किया गया एक महत्वपूर्ण विद्रोह है। यह विद्रोह अंग्रेजों और बाहरी लोगों (दिकु) के शोषण का बदला लेने के लिए किया गया था।मुंडा, उरांव, भूमिज और हो आदिवासियों को अंग्रेजों द्वारा कोल कहा जाता था। इस जाति के लोग छोटा नागपुर के पठार इलाकों में सदियों से शांतिपूर्वक रहते आए थे। उनकी जीविका का मुख्य आधार खेती और जंगल थे। ये जंगलों की सफाई कर बंजर जमीन को खेती लायक बनाकर उस पर खेती करते थे। इसलिए वे जमीन पर अपना नैसर्गिक अधिकार मानते थे। कोलों की जीवन शैली में मध्यकाल में परिवर्तन आने लगा।

(iv) संथाल विद्रोह (1855-56)

संथाल विद्रोह भारतीय उपमहाद्वीप के सबसे बड़े आदिवासी जन-आंदोलनों में से एक था। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन, जमींदारों, महाजनों और पुलिस के शोषण के विरुद्ध संथाल जनजाति द्वारा संगठित किया गया था। इस विद्रोह का नेतृत्व चार भाइयों – सिदो, कान्हू, चांद और भैरव मुर्मू ने किया।

ब्रिटिश शासन के तहत संथाल क्षेत्र में ज़मींदारी व्यवस्था लागू हुई, जिससे आदिवासी किसान भूमिहीन होते गए। जमींदारों और महाजनों ने अधिक ब्याज दरों पर ऋण देकर उन्हें कर्ज़ में डुबो दिया। उनकी जमीनें छीन ली गईं और जबरन लगान वसूला गया। संथालों की सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक संरचना को नष्ट किया गया।

जून 1855 में सिदो और कान्हू ने भोगनाडीह गांव (वर्तमान झारखंड के साहेबगंज जिले में) से अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध बगावत का बिगुल फूंका। लगभग 60,000 संथालों ने हथियार उठाकर “संथाल हूल” (विद्रोह) शुरू किया। उन्होंने संथाल परगना, भागलपुर, दुमका, पाकुड़, और राजमहल क्षेत्रों में सरकारी प्रतिष्ठानों, थानों, डाकघरों और जमींदारों की कोठियों पर हमला किया।

संथालों ने पारंपरिक हथियारों जैसे तीर-धनुष, फरसा और भाले से ब्रिटिश सेना का मुकाबला किया। उनकी वीरता और आत्मबलिदान अतुलनीय था, लेकिन आधुनिक हथियारों से लैस ब्रिटिश फौज ने अत्यधिक हिंसा से इस विद्रोह को कुचल दिया। हजारों संथाल मारे गए और सैकड़ों गांव नष्ट कर दिए गए।

हालांकि यह आंदोलन असफल रहा, लेकिन इसने आदिवासी चेतना को जगाया और ब्रिटिश प्रशासन को संथाल परगना को अलग प्रशासनिक इकाई घोषित करने के लिए मजबूर किया। यह विद्रोह स्वतंत्रता संग्राम का अहम अध्याय बना।

संथाल विद्रोह न केवल आर्थिक शोषण के विरुद्ध आवाज़ थी, बल्कि यह आदिवासी अस्मिता, अधिकार और न्याय की एक गूंज थी, जिसे इतिहास कभी भुला नहीं सकता।

(v) उलगुलान आंदोलन (1895-1900)

उलगुलान आंदोलन का नेतृत्व झारखंड के महान क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ने किया था। “उलगुलान” का अर्थ होता है “महाविद्रोह” या “महाक्रांति”। यह आंदोलन मुख्य रूप से 1895 से 1900 के बीच छोटानागपुर क्षेत्र (वर्तमान झारखंड) में हुआ, जो आदिवासियों की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक शोषण के विरुद्ध एक संगठित क्रांति थी। अंग्रेजों के आने से पहले आदिवासी समाज अपनी जमीन, जंगल और जल पर स्वशासित जीवन जीते थे। लेकिन ब्रिटिश शासन ने ज़मींदारी प्रथा लागू कर दी, जिससे उनकी जमीनें छिनने लगीं और उन्हें बंधुआ मजदूरी करने के लिए मजबूर किया गया। साहूकारों और महाजनों ने उन्हें कर्ज में डुबो दिया और धर्मांतरण के ज़रिए उनकी सांस्कृतिक पहचान को मिटाने की कोशिशें की गईं। इन सबके खिलाफ बिरसा मुंडा ने “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” यानी “अपना देश, अपना राज” का नारा देकर आदिवासी समाज को जागरूक और संगठित किया।

बिरसा मुंडा ने अपने अनुयायियों को संगठित किया और एक धर्म सुधारक की भूमिका में भी आए। उन्होंने आदिवासियों को उनके पारंपरिक विश्वासों की ओर लौटने और ईसाई मिशनरियों द्वारा किए जा रहे धर्मांतरण से सावधान रहने का संदेश दिया। उलगुलान आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार की नींव हिला दी और कई स्थानों पर अंग्रेजों की सत्ता को चुनौती दी। आदिवासी अपने पारंपरिक हथियारों से ब्रिटिश पुलिस थानों, सरकारी दफ्तरों और महाजनों के घरों पर हमला करते थे। यह आंदोलन छोटानागपुर के रांची, खूँटी, सरायकेला और सिंहभूम जैसे क्षेत्रों में फैला।

हालाँकि बिरसा मुंडा और उनके साथियों का यह विद्रोह अंततः 1900 में दबा दिया गया और बिरसा को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया, जहाँ उनकी मृत्यु रहस्यमय परिस्थितियों में हो गई। लेकिन उलगुलान आंदोलन ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक अलग पहचान बनाई। बिरसा मुंडा आज भी “धरती अबा” (पृथ्वी पिता) के रूप में पूजे जाते हैं और उनका जन्मदिन (15 नवंबर) झारखंड स्थापना दिवस के रूप में मनाया जाता है। उलगुलान आंदोलन आदिवासी अस्मिता, आत्मनिर्भरता और स्वराज की प्रेरणादायक मिसाल है, जिसने ब्रिटिश शासन को यह एहसास कराया कि आदिवासी समाज भी अपने अधिकारों की रक्षा के लिए संगठित हो सकता है और लड़ेगा भी।

(vi) टाना भगत आंदोलन (1914-1920)

टाना भगत आंदोलन झारखंड के प्रमुख जनजातीय आंदोलनों में से एक था, जिसकी शुरुआत वर्ष 1914 में ओरांव जनजाति के लोगों ने की थी। इस आंदोलन का नेतृत्व जतरा उरांव नामक एक आदिवासी युवक ने किया, जिसे एक आध्यात्मिक नेता के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। जतरा उरांव ने खुद को भगवान का अवतार घोषित किया और लोगों को अंग्रेजों के अत्याचार, सामाजिक बुराइयों और आदिवासी जीवन की गिरती स्थिति से मुक्त करने का संकल्प लिया। “टाना” का अर्थ होता है “सुधरने वाला” और “भगत” का मतलब होता है “भक्त” – इस प्रकार टाना भगत वे लोग थे जो जीवन को धार्मिक अनुशासन, शुद्धता और स्वदेशी मूल्यों के अनुसार जीना चाहते थे।

टाना भगत आंदोलन मूल रूप से धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलन था, लेकिन धीरे-धीरे यह राजनीतिक आंदोलन में परिवर्तित हो गया। यह आंदोलन अंग्रेजी शासन के खिलाफ अहिंसात्मक प्रतिरोध का प्रतीक बना, जो बाद में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन से जुड़ गया। टाना भगतों ने शराब, मांस, झूठ, चोरी और अंधविश्वास का त्याग किया और स्वदेशी वस्त्र पहनने लगे। वे सफेद धोती, कुर्ता और गांधी टोपी पहनते थे और चरखा चलाते थे। उन्होंने लगान न देने, सरकारी कानूनों का पालन न करने और ब्रिटिश अफसरों से दूरी बनाने का निर्णय लिया।

1914 से लेकर 1920 के दशक तक टाना भगत आंदोलन जंगल और गांवों में फैला रहा और ब्रिटिश सरकार ने इसे दबाने की कोशिश की। टाना भगतों को जेलों में डाला गया, उन पर अत्याचार हुए लेकिन उन्होंने हिंसा का रास्ता नहीं अपनाया। यह आंदोलन पूरी तरह गांधीवादी विचारधारा पर आधारित था, इसलिए इसे झारखंड में गांधी आंदोलन का प्रारूप भी कहा जाता है। टाना भगतों ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में न केवल भाग लिया, बल्कि आदिवासी समाज को संगठित करने और स्वराज की भावना फैलाने में भी अहम भूमिका निभाई।

आज भी टाना भगत समुदाय अपने अनुशासित जीवन, सरलता, सत्य और अहिंसा की परंपरा के लिए जाना जाता है। उनका योगदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अनोखा और प्रेरणादायक अध्याय है।

(vii) भारत छोड़ो आंदोलन (1942)

भारत छोड़ो आंदोलन, जिसे अंग्रेज़ी में Quit India Movement कहा जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अत्यंत महत्वपूर्ण चरण था। इस आंदोलन की शुरुआत 8 अगस्त 1942 को मुंबई में हुई थी, जब महात्मा गांधी ने अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन में ‘करो या मरो’ (Do or Die) का नारा दिया। यह आंदोलन ब्रिटिश शासन को भारत से तुरंत हटने के लिए मजबूर करने के उद्देश्य से शुरू किया गया था।

इस समय द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था और ब्रिटिश सरकार भारत को बिना उसकी अनुमति के युद्ध में शामिल कर चुकी थी। भारतीय नेताओं ने यह मांग की कि जब तक भारत को स्वतंत्रता नहीं दी जाती, तब तक भारत युद्ध में सहयोग नहीं करेगा। ब्रिटिश सरकार ने इस मांग को अस्वीकार कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस ने “भारत छोड़ो आंदोलन” की घोषणा कर दी।

आंदोलन की शुरुआत होते ही ब्रिटिश सरकार ने महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल, मौलाना आज़ाद सहित कांग्रेस के सभी शीर्ष नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। इसके बावजूद देशभर में जनता ने स्वतःस्फूर्त ढंग से इस आंदोलन को आगे बढ़ाया। स्कूल, कॉलेज, अदालतें और दफ्तर बंद हो गए। रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं, टेलीफोन लाइनें काटी गईं, और प्रशासनिक भवनों पर हमले हुए। यह आंदोलन शहरी और ग्रामीण – दोनों क्षेत्रों में व्यापक रूप से फैल गया।

भारत छोड़ो आंदोलन का एक विशेष पहलू यह था कि इसमें महिलाओं, छात्रों, किसानों और मजदूरों ने बड़ी संख्या में भाग लिया। कई गुप्त क्रांतिकारी संगठनों ने भी भूमिगत होकर अंग्रेजों के खिलाफ काम किया। अरुणा आसफ़ अली, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, उषा मेहता आदि युवाओं ने इस आंदोलन को नई दिशा दी। उषा मेहता ने गुप्त रेडियो स्टेशन के माध्यम से जनता तक संदेश पहुँचाए।

हालाँकि यह आंदोलन ब्रिटिश दमन के कारण अपेक्षित सफलता प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन इसने अंग्रेजों को यह स्पष्ट संकेत दे दिया कि अब भारत को स्वतंत्रता दिए बिना शासन चलाना असंभव है। आंदोलन ने भारतीय जनता के मन में आत्मविश्वास और संघर्ष की भावना को और भी दृढ़ किया।

अंततः 1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली, और भारत छोड़ो आंदोलन को स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में अंतिम निर्णायक कदम माना जाता है। यह आंदोलन पूर्ण स्वतंत्रता की भावना का सशक्त प्रतीक था और भारतीय जनमानस को एकजुट करने वाला अद्वितीय जनांदोलन बन गया।

7. प्रमुख व्यक्ति / क्रांतिकारियों के नाम

(i) सिदो-कान्हू मुर्मू (Sidho-Kanho Murmu)

काल: 1855–1856
आंदोलन: संथाल विद्रोह
स्थान: भोगनाडीह, संथाल परगना (वर्तमान झारखंड)

सिदो और कान्हू मुर्मू दो भाई थे जिन्होंने 1855 में संथाल विद्रोह का नेतृत्व किया। यह विद्रोह ब्रिटिश शासन, महाजनों, जमींदारों और साहूकारों के अत्याचार के विरुद्ध था। उन्होंने लगभग 60,000 संथालों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध छेड़ा। यह पहला संगठित आदिवासी विद्रोह था। अंततः ब्रिटिश सेना ने इस विद्रोह को बलपूर्वक कुचल दिया, और सिदो-कान्हू को गिरफ्तार कर फाँसी दे दी गई। उनका बलिदान आदिवासी गर्व और स्वतंत्रता की प्रेरणा बना।

(ii) बिरसा मुंडा (Birsa Munda)

    जन्म: 15 नवम्बर 1875
    मृत्यु: 9 जून 1900 (जेल में)
    स्थान: उलिहातु, खूंटी (झारखंड)
    आंदोलन: उलगुलान (महाविद्रोह)

    बिरसा मुंडा झारखंड के सबसे महान आदिवासी क्रांतिकारी और धार्मिक नेता थे। उन्होंने अंग्रेजों और ज़मींदारों द्वारा आदिवासी भूमि पर कब्जे, आर्थिक शोषण और धर्मांतरण के विरुद्ध उलगुलान आंदोलन का नेतृत्व किया। उन्होंने आदिवासियों को संगठित किया, सामाजिक-सांस्कृतिक जागरूकता फैलाई और “अबुआ राज” (अपना राज) की बात की। 1900 में उनकी रहस्यमय मृत्यु जेल में हो गई, लेकिन उनका नाम आज भी ‘धरती आबा’ के रूप में पूजनीय है।

    (iii) तिलका मांझी (Tilka Manjhi)

      जन्म: 1750
      मृत्यु: 1785 (भागलपुर में फाँसी)
      स्थान: संthal परगना क्षेत्र (झारखंड-बिहार सीमा)

      तिलका मांझी भारत के पहले आदिवासी स्वतंत्रता सेनानी माने जाते हैं। उन्होंने 1770 के अकाल के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया। उन्होंने राजमहल क्षेत्र में ब्रिटीश कलेक्टर क्लीवलैंड पर तीर से हमला किया। अंग्रेजों ने उन्हें पकड़कर भागलपुर में एक पीपल के पेड़ से बांधकर फाँसी दे दी। उन्होंने सबसे पहले आदिवासी अस्मिता की रक्षा और भूमि अधिकारों के लिए आवाज उठाई।

      (iv) जतरा भगत (Jatra Bhagat)

        जन्म: 1888
        स्थान: चिंगरी-नवाटोली (गुमला, झारखंड)

        जतरा भगत ओरांव जनजाति के थे और उन्होंने 1914 में टाना भगत आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने आदिवासी समाज में सुधार लाने के लिए शराब, मांस, हिंसा, अंधविश्वास जैसे दोषों के खिलाफ आवाज उठाई। उनका आंदोलन धार्मिक और सामाजिक सुधार के साथ-साथ गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित था। उन्होंने सत्य, अहिंसा और स्वदेशी को अपनाने का संदेश दिया। बाद में यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के खिलाफ असहयोग आंदोलन से जुड़ गया।

        (v) फूलो-झानो (Phulo-Jhano)

          काल: 1855
          स्थान: संथाल परगना

          फूलो और झानो, संथाल विद्रोह (1855) की दो वीरांगनाएँ थीं। ये दोनों सिदो-कान्हू की अनुयायी थीं और उन्होंने अपने साहस से ब्रिटिश सैनिकों से मुकाबला किया। कहा जाता है कि उन्होंने अकेले अपने पारंपरिक हथियारों से सैकड़ों अंग्रेज सैनिकों को मौत के घाट उतारा। इनका योगदान संथाल महिलाओं की वीरता और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण को दर्शाता है। आज भी उनके नाम पर झारखंड में संस्थान और योजनाएँ चलाई जाती हैं।

          (vi) बुधु भगत (Budhu Bhagat)

            काल: 1831–1832
            स्थान: रांची क्षेत्र (चोटानागपुर)

            बुधु भगत कोल जनजाति के एक वीर योद्धा और नेता थे। उन्होंने कोल विद्रोह (Kol Rebellion) का नेतृत्व किया, जो ज़मींदारी प्रथा और अंग्रेजों के विरुद्ध था। उन्होंने किसानों और आदिवासियों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी। उन्हें ब्रिटिश फौज ने पकड़कर गोली मार दी। उनका बलिदान कोल जनजाति की चेतना और संघर्ष का प्रतीक है।

            8. सामाजिक / आर्थिक / सांस्कृतिक प्रभाव

            सामाजिक प्रभाव:

            • आदिवासी समाज में राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता का विकास।
            • एकजुटता की भावना का प्रसार।
            • जातीय गौरव और आत्मसम्मान का पुनरुद्धार।

            आर्थिक प्रभाव:

            • अंग्रेजों की आर्थिक नीतियों का खुला विरोध।
            • भूमि पर स्वामित्व की मांग और वन अधिकार आंदोलनों की नींव।
            • आर्थिक असमानता के खिलाफ संघर्ष की शुरुआत।

            सांस्कृतिक प्रभाव:

            • आदिवासी रीति-रिवाजों और परंपराओं का पुनर्जागरण।
            • धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए आंदोलन।
            • बाहरी संस्कृति के विरुद्ध आत्म-संरक्षण की भावना।

            9. समस्याएँ और चुनौतियाँ

            • आदिवासी स्वतंत्रता सेनानियों को इतिहास में पर्याप्त स्थान नहीं।
            • स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान पर शोध की कमी।
            • स्मारकों, संग्रहालयों और संसाधनों की कमी।
            • स्थानीय भाषाओं और कहानियों का अभिलेखीकरण न होना।

            10. समाधान / सुधार के उपाय

            • इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में झारखंड के क्रांतिकारियों को सम्मिलित करना।
            • स्वतंत्रता सेनानियों की जीवनी पर आधारित साहित्य, नाटक और फिल्में बनाना।
            • उनके नाम पर स्मारक, संग्रहालय और शैक्षणिक संस्थान स्थापित करना।
            • विश्वविद्यालय स्तर पर अनुसंधान प्रोत्साहन।
            • जनजातीय समुदायों की मौखिक परंपराओं का दस्तावेजीकरण।

            11. निष्कर्ष / सारांश

            भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में झारखंड का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण, परंतु उपेक्षित रहा है। यहाँ के आदिवासी योद्धाओं ने अपने सीमित संसाधनों के बावजूद अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष किया और आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बने। उनके संघर्ष ने न केवल राजनीतिक आज़ादी के बीज बोए, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक स्वाभिमान की चेतना भी जागृत की। यह आवश्यक है कि उनके बलिदानों को भुलाया न जाए और उन्हें भारतीय इतिहास में वह स्थान मिले जिसके वे वास्तविक हकदार हैं।

            12. संदर्भ / ग्रंथ सूची

            • झारखंड आंदोलन और इतिहास – रामदयाल मुंडा
            • आदिवासी संघर्ष और सामाजिक परिवर्तन – डॉ. नवल किशोर चौधरी
            • बिरसा मुंडा: जीवन और आंदोलन – साहित्य अकादमी प्रकाशन
            • झारखंड के प्रमुख जनजातीय विद्रोह – IGNOU अध्ययन सामग्री
            • ऑनलाइन तकनीकी माध्यम यूट्यूब Jharkhand Wala और गूगल Jharkhandwala.com से।
            • केंद्रीय आदिवासी अनुसंधान संस्थान, रांची के प्रकाशन
            • इतिहास की NCERT पुस्तकें (कक्षा 8–12)
            • विभिन्न शोधपत्र, न्यूज़पेपर और जनसंचार स्रोत
            • स्थानीय बुजुर्गों और जनजातीय समुदाय की मौखिक परंपराएँ

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